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महाकुंभ 2025 राख से फिर पनपा अक्षयवट- अकबर ने घेरा, जहांगीर ने जलाया, पर नहीं मिटी आस्था

महाकुंभ 2025: प्रयागराज, 2025 के महाकुंभ में करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बने संगम तट पर मौजूद है एक ऐसा जीवित प्रतीक अक्षय वट, जो सदियों से आस्था, संस्कृति और संघर्ष की गाथा कहता है। माना जाता है कि यह वटवृक्ष सृष्टि के आरंभ से अस्तित्व में है और महाप्रलय में भी अडिग रहता […]

महाकुंभ 2025: प्रयागराज, 2025 के महाकुंभ में करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र बने संगम तट पर मौजूद है एक ऐसा जीवित प्रतीक अक्षय वट, जो सदियों से आस्था, संस्कृति और संघर्ष की गाथा कहता है। माना जाता है कि यह वटवृक्ष सृष्टि के आरंभ से अस्तित्व में है और महाप्रलय में भी अडिग रहता है। यही नहीं, इसे कई बार मिटाने की कोशिशें की गई, लेकिन यह हर बार राख से पनपता रहा।

अकबर ने घेरा, जहांगीर ने जलाया

1575 में मुगल सम्राट अकबर जब प्रयाग (अब प्रयागराज) आया तो उसने यमुना तट पर किला बनवाया और प्राचीन पातालपुरी मंदिर को किले की सीमा में समेट लिया। इसके साथ ही अक्षय वट को भी भीतर कैद कर दिया गया। इसके बाद जहांगीर ने इस वटवृक्ष को जड़ से खत्म करने की कोशिश की। उसने वृक्ष को कटवाया, जड़ों में आग लगवाई, लोहे की चादर से ढंका और गरम तवा रखवाया लेकिन वटवृक्ष राख से फिर अंकुरित हो उठा। यह घटना न केवल वृक्ष की जीवटता, बल्कि भारत की आस्था की अक्षय परंपरा का भी प्रतीक बन गई।

औरंगजेब और अंग्रेजों ने भी रोकी श्रद्धा की राह

औरंगजेब के काल में श्रद्धालुओं की पहुंच पूरी तरह प्रतिबंधित कर दी गई। मंदिर और वटवृक्ष पर फिर से पूजा-अर्चना बाजीराव पेशवा के प्रयासों से सन् 1735 में प्रारंभ हुई। इसके बाद अंग्रेजों ने एक बार फिर दर्शन पर रोक लगा दी। स्वतंत्रता के बाद भी यह स्थल आम जनता के लिए वर्जित रहा।

2019 में फिर खुले श्रद्धा के द्वार

2018 में CDS बिपिन रावत और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण के निरीक्षण के बाद मंदिर का पुनरुद्धार कार्य तेज़ हुआ। 10 जनवरी 2019 को अक्षय वट को पहली बार आम श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए खोला गया। अब 2025 के महाकुंभ में लाखों भक्त इस चमत्कारी वटवृक्ष के साक्षी बनेंगे।

पौराणिक महत्व- श्रीराम, सीता और सृष्टि की शुरुआत से जुड़ी मान्यताएं

मान्यता है कि सीता माता ने इसी वटवृक्ष के नीचे राजा दशरथ को पिंडदान किया था और इसे अविनाशी होने का वरदान दिया।
शूल टंकेश्वर महादेव का अभिषेक इसी वृक्ष की जड़ों तक पहुंचता है और संगम में विलीन होता है।
अदृश्य सरस्वती नदी भी इसी वटवृक्ष के नीचे से बहती है, जो त्रिवेणी संगम का हिस्सा बनती है।
पद्मपुराण, अलबरूनी और ह्वेनसांग जैसे विदेशी और भारतीय ग्रंथों में इस वृक्ष का उल्लेख है।

पातालपुरी मंदिर- भारत की सबसे प्राचीन भूमिगत धरोहरों में से एक

84 फीट लंबे और 49 फीट चौड़े इस मंदिर में सैकड़ों वर्षों की स्थापत्य कला देखने को मिलती है। 100 से अधिक पत्थर के स्तंभों से सजा यह मंदिर असिमाधव के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर में धर्मराज, शिव, विष्णु, हनुमान, सीता-राम सहित अनेक देवी-देवताओं की प्रतिमाएं हैं।

निष्कर्ष-

आस्था को मिटाने की कोशिशें नाकाम रहीं

अकबर से औरंगजेब और अंग्रेजों तक हर सत्ताधारी ने कभी इस वटवृक्ष को कैद किया, कभी मिटाया — लेकिन यह वृक्ष, भारत की संस्कृति और आस्था की तरह, हर बार फिर खड़ा हो गया। महाकुंभ 2025 में यह न केवल एक तीर्थ है, बल्कि हजारों साल की संघर्षशील आस्था का जीवंत प्रतीक है।

न्यूज़ एडिटर बी के झा की रिपोर्ट-

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