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- बिहार

Mithila Culture: नहाय खाय के साथ मिथिला संस्कृति का महान पर्व मधुश्रावणी पूजा प्रारंभ

खगड़िया: सावन महीने के कृष्ण पक्ष पंचमी से आरंभ एवं शुक्ल पक्ष तृतीया को सम्पन्न होने वाली मिथिला संस्कृति व भक्ति का लोक पर्व मधुश्रावणी पूजा  सोमवार को नहाय खाय के साथ प्रारंभ हूआ। नव विवाहित महिलाएं के द्वारा किये जाने वाले इस पूजा का विशेष महत्व है। बुधवार को नव विवाहित महिलायें प्रात: पवित्र गंगा स्नान कर पूजा पाठ करने के पश्चात अरवा भोजन […]

खगड़िया: सावन महीने के कृष्ण पक्ष पंचमी से आरंभ एवं शुक्ल पक्ष तृतीया को सम्पन्न होने वाली मिथिला संस्कृति व भक्ति का लोक पर्व मधुश्रावणी पूजा  सोमवार को नहाय खाय के साथ प्रारंभ हूआ। नव विवाहित महिलाएं के द्वारा किये जाने वाले इस पूजा का विशेष महत्व है। बुधवार को नव विवाहित महिलायें प्रात: पवित्र गंगा स्नान कर पूजा पाठ करने के पश्चात अरवा भोजन ग्रहण किया। एवं अपने हाथो में मेंहदी रची । इस बार 13 दिनो की पूजा होगी। 15 जुलाई से प्रारंभ होकर 27 जूलाई तक चलेगी।

कथा का विशेष महत्व

ऐसी मान्यता है कि माता पार्वती सबसे प्रथम मधुश्रावणी व्रत रखी थी व जन्म-जन्मांतर तक भगवान शिव को अपने पति के रूप में प्राप्त करती रही.यह बात हर नवविवाहिताओं के दिलो-दिमाग रहता है.यही कारण है कि इस पर्व को पूरे मनोयोग से मनाती है.इस पर्व के दौरान माता पार्वती व भगवान शिव से संबंधित मधुश्रावणी की कथा सुनने का प्रावधान है.खास कर समाज की वृद्धाओं द्वारा कथा सुनाया जाता है. साथ हीं बासी फूल, ससुराल से आये पूजन सामग्री, दूध-लावा व अन्य सामग्री के साथ नगा देवता व विषहर की भी पूजा की जाती है. कहा जाता है कि इस प्रकार की पूजा-अर्चना से पति दीर्घायु होते हैं. शादी के प्रथम वर्ष के इस त्योहार का अपने-आप में विशेष महत्व है, जिसकी अनुभूति को नवविवाहिता ही कर सकते हैं।

कहती हैं नव विवाहिताएं

नवविवाहित सोनी झा, अंशू , अस्मिता, पूजा ,  काजल, राखी ने बताया कि यह पूजा एक तपस्या के समान है।इस पूजा में लगातार 14 दिनों तक नव विवाहित महिलायें प्रतिदिन एक बार अरवा भोजन करती हैं।इसके साथ ही नाग-नागिन,हाथी,गौरी,शिव आदि की प्रतिमा बनाकर प्रतिदिन कई प्रकार के फूलों,मिठाईयों एवं फलों से पूजन किया जाता है।सुवह-शाम नाग देवता को दूध लावा का भोग लगाया जाता है।

पूजा का है महत्व

मधुश्रावणी पूजन का जीवन में काफी महत्व माना जाता है।इसके महत्व को बताते हुए पंडित अजयकांत ठाकुर, कृष्ण कांत झा ने बताया कि महिलाओं के द्वारा किया जानेवाला यह पति को दीर्घायु तथा सुख शांति के लिये की जाती है।पूजन के दौरान मैना पंचमी, मंगला गौरी,पृथ्वी जन्म,पतिव्रता, महादेव कथा,गौरी तपस्या,शिव विवाह, गंगा कथा,बिहुला कथा तथा बाल वसंत कथा सहित 14 खंडों में कथा का श्रवण किया जाता है।गांव समाज की बुजुर्ग महिला कथा वाचिकाओं के द्वारा नव विवाहिताओं को समूह में बिठाकर कथा सुनायी जाती है।पूजन के सातवें, आठवें तथा नौवें दिन प्रसाद के रुप में घर जोड़,खीर एवं गुलगुला का भोग लगाया जाता है।प्रतिदिन संध्याकाल में महिलायें आरती,सुहाग गीत तथा कोहवर गाकर भोले शंकर को प्रसन्न करने का प्रयत्न करती हैं।

मायके-ससुराल दोनों के सहयोग से होती है पूजन

इस पूजन में मायका तथा ससुराल दोनों पक्षों का सहयोग आवश्यक होता है। पूजन करने वाली नव विवाहिताएँ ससुराल पक्ष से प्राप्त नये वस्त्र धारण करती हैं।जबकि प्रत्येक दिन पूजा समाप्ति के बाद भाई के द्वारा पूजा करने के लिये मधुश्रावणी का हर सामान ससुराल से ही आता है। परंपरा रही है कि नव विवाहिता के मायके के सभी सदस्यों के लिये कपड़ा, व्रती के लिये जेबरात, विभिन्न प्रकार के कपड़ा, भोज के लिये सामान भी ससुराल से ही आता है। वहीं चना को अंकुरित कर इसे भेजे जाने का भी रिवाज है। ससुराल से नाग नागिन, हाथी सहित विषहारा के सभी बहनों को मिट्टी से बना कर उसे रंग रोगन कर, मैना पत्ता व अन्य पूजा सामग्री के साथ भेजा जाता है।

पूरे पूजा के दौरान आस्था व श्रद्धा के साथ विषहारा की पूजा अर्चना की जाती है व गीत गाये जाते हैं. हर दिन पांच बीनी कथा भी ब्रतियों को सुनायी जाती है। कहा जाता है कि जो महिला ये पांचो बीनी नियमित रूप से पढती हैं उसे हर प्रकार के सुख प्राप्त होते है. परिवार में कभी भी सर्पदोष की शिकायतें नहीं होती है।

मैना पत्ता पर होती है पूजा

मधुश्रावणी पूजन मे नवविवाहिता मैना पात पर नाग नागिन की बनी आकृति पर दूध लावा चढाकर अपने सुहाग के साथ – साथ सपरिवार के लिए मंगलकामना करती है.  कहा जाता है कि माता पार्वती ने अपने कठिन व्रत के फलस्वरूप इसी सावन मास मे शंकर जी को वर के रूप में प्राप्त की थी. मौना पंचमी के मौके पर नाग देवता की पूजा के बाद शाम में धान का लावा और मिट्टी को मिलाकर तथा इसे अभिमंत्रित कर घर आंगन दरवाजा के विभिन्न भागों में छीटा जाता है।मधुश्रावणी में मिट्टी और गोबर से बने नाग की पूजा की जाती है.  नवविवाहिता पर सिंदूर और चंदन से तथा दूसरे पत्ता पर सिंदूर व पीठार से बनेनाग देवता की आकृति का पूजन करती है।

भाई का विशेष योगदान

इस  पूजन में नवविवाहिता के भाई का बहुत ही बड़ा योगदान रहता है।  प्रत्येक दिन पूजा समाप्ति के बाद भाई अपनी बहन को हाथ पकड़ कर उठाती हैं। नवविवाहिता अपने भाई को इस कार्य के लिए दुध ,फल आदि प्रदान करती है। टेमी दागने की है परंपरा

पूजा के अंतिम दिन पूजन करने वाली महिला को कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ता है।टेमी दागने की परंपरा में नव विवाहिताओं को गर्म सुपारी,पान एवं आरत से हाथ एवं पांव को दागा जाता है।इसके पीछे मान्यता है कि इससे पति पत्नी का संबंध मजबूत होता है।

पकवानों से सजती है डलिया

पूजा के अंतिम दिन 13 छोटे बर्तनों में दही तथा फल-मिष्ठान सजा कर पूजा किया जाता है।साथ ही 13 सुहागन महिलाओं के बीच प्रसाद का वितरण कर  ससुराल पक्ष से आए हुए बुजूर्ग से  आशीर्वाद प्राप्त किया जाता ।उसके बाद पूजा का समापन होती है ।

पुरोहित के रूप में महिला पंडित

मिथिलांचल का इकलौता ऐसा लोकपर्व है, जिसमें पुरोहित की भूमिका में महिला ही होती हैं। इसमें व्रतियों को महिला पंडित न सिर्फ पूजा करवाती है। बल्कि कथावाचन भी करती हैं। व्रतियां पंडितजी को पूजा के लिए न सिर्फ समझौता करती हैं, बल्कि इसके लिए उन्हें दक्षिणा , वस्त्र भी देती हैं। यह नवविवाहिता के ससुराल से आती है. पंडित को वस्त्र व दक्षिणा देकर व्रती विधि-विधान व परंपरा के अनुसार व्रत करती है कहा जाता है कि इस पर्व में जो पत्नी पति के साथ गौड़ी-विषहरा की आराधना करती है, उसका सुहाग दीर्घायु होता ओर है.व्रत के दौरान कथा के माध्यम से उन्हें सफल दांपत्य जीवन की शिक्षा भी दी जाती है।

आज भी बरकरार हैं पुरानी परंपरा

सदियों से चली आ रही मिथिला संस्कृति का महान पर्व आज भी बरकरार है। ओर नवविवाहिता श्रद्धा भक्ति के साथ मनाती हैं। महिलाएं समूह बनाकर मैथिली गीत गाकर भोले शंकर को खुश करती हैं। ओर आने वाले पीढ़ी को आगाज करती हैं कि इस परंपरा को बरकरार रखना।इस पर्व में मिथिला संस्कृति की झलक ही नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति की भी झलक देखने को मिलती हैं। 

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